” मारग प्रेम को को समुझै ‘हरिश्चंद यथारथ होत यथा है
लाभ कछू न पुकारन में बदनाम ही होंन की सारी कथा है ” |
“प्रेम “शब्द ने संसार भर को पग पग पर भ्रमित किया है |एक तरफ तो इसने नारी- व पुरुष के संबंधो को सामाजिक प्रष्ट भूमि के रिश्ते में पवित्रता , उचाईया व महानता भरी है , तो दूसरी तरफ स्वार्थ व संकीर्णता के आवरण से ढक कर पुरुष व नारी दोनों ने एक दुसरे को छला है | प्रेम क्या है ? कोई इसे परिभाषित कर पाया है ? |इसकी उत्पत्ति कहा से होती है | दिल से या आँखों से ? क्या है प्रेम ? भावना , पूंजा आस्था या त्याग | धोखा ,छल या वासना | आकर्षण , उन्माद या तृष्णा | प्रेम का पैमाना क्या होता है ? यह जहर है या अमृत ? कौन सुलझाएगा इस प्रेम की प्रमेय को ? भावनाओ की किसी क्रमिकता का नाम नहीं है प्रेम |ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है जिस पर चलने से प्रेम हो ही जायेगा | कई बार तो वर्षो दृष्टि का प्रत्यर्पण होता रहता है पर प्रेम नहीं होता ,और कभी एक नजर में ही जन्मो का रिश्ता महसूस होने लगता है | फिर प्रेम किसको कहते है | प्रेम आत्मा के पवित्र सम्बन्ध को कहते है |प्रेम में कम्पन होता है आत्म- बिस्मरण होता है आत्म बलिदान होता है | किसीको एक पग पर ही सब कुछ मिल जाता है , कोई वर्षो भटकने के बाद भी रीता ही रहता है | कोई खोकर पा लेता है ,कोई पाकर खो देता है | प्रेम की इन अनिश्चित अनुभूतियो को क्या किसी निश्चित परिभाषा में बांधा जा सकता है | प्रेम तो हर पल विकसित , विस्तारित व विस्फोटक होने वाला सतत प्रवाह है , जिसकी नियति निश्चित नहीं ,मंजिल नहीं , कोई पूर्णता नहीं कोई अंत नहीं | ताज महल बनवा कर भी चैन नहीं , कुछनही किया तब भी चैन ही चैन | बहुत कठिन है यह प्रमेय | हल करिए या करवाइए , जबाब मिले तो मुझे भी जरुर बताइयेगा |
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