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ऋतुराज फागुन लाया है

MERI NAJAR
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    सघन कुंतल मेघ से कारे ,सहज ही मन चुराते है |

    माथे में जड़ी बिंदिया ,कि तारे झिलमिलाते है |

    अर्ध चन्द्राकार भौहे , पलक को जब उठाती है |

    बक्र होकर आँखे तब , बाण तीखे चलाती है |

    अधर रस से लिपट कर , शब्द जब निकलते है |

    सुर बीणा के तब सातो ,एक साथ बजते है |

    कपोलो की अरुन आभा , हाय कितनी सुनहरी है |

    कंचना कटि रुचिकर , नाभि भंवर सी गहरी है |

    मोरनी सी चाल पर कटि ,इस तरह बल खाती है |

    समंदर से लहर जैसे ,किनारे चल कर आती है |

    चालीस साल से मैं ,जिस अदा का घायल हू |

    रूपसी उस बंकु चितवन का मैं आज भी कायल हू |

    प्रणय की मधुर बेला ,प्रणय का पर्व आया है |

    बासंती हवाए साथ लेकर ,ऋतुराज फागुन लाया है |

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