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कहाँ फागुन का श्रृंगार रस

MERI NAJAR
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मै सर पर पैर रख कर भाग रहा था | अभी पुलिस लाइन से बाहर निकल ही रहा था कि हुकुम सिंह का चश्मे -नूर मेरी तरफ आता हुआ नजर आया |
“पंडित – चू ……… माई ने फ़ौरन आपको हकारा है ,”
“आसमान से गिरा खजूर में अटका ” मुझ पर लागू होने वाला था | पर दिमाग पर जोर लगाया तो हल यह निकला कि बच्चा है कुछ दे कर जान छुड़ा लू | सो पांच का नोट निकल कर मनोजवा की तरफ लहराया | “बेटा कलुवा गरमा गरम जलेबियाँ तल रहा है , जाकर खालो | माई को बोलना आज जरुरी काम है फिर कभी मिल लूंगा “|
नोट देख कर मनोजवा का चेहरा खिल उठा | झपट्टा मार कर नोट को जेब के हवाले कर बोला ” पंडित चू पैसे तो मैं रख लेता हूँ ,पर चलना आपको अभी पड़ेगा |
अब करता भी क्या ? मन मार कर उसके साथ हो लिया |
“पंडित जी आप भी थे शामियाने में ” ?कचौड़ी हाथ में लिए हवलदारिन सा ने प्रश्न दागा |
उनकी भंगिमा से लग रहा था कि अगर जल्दी से उनके प्रश्न का जबाब न मिला तो वे कचौड़ी को कड़ाही के बजाय
मेरे मुह पर ही तल देगी |
“जी -जी भाभी जी ” मैं हकलाया| ” तो भागे कहा जा रहे हो ? जाओ शामियाने में वहां कि सारी रपट सच सच बताना , समझे | आखिर फिर शामियाने का रुख करना ही पड़ा |
पर पर दुलारी भी तो वहां होगी ही ,उस से कैसे निपटूगा ?
शामियाने की भीड़ में श्री आकाश तिवारी इलाहाबादी अमरुद दुलारी की तरफ उछाल रहे थे ,वह भी हस-हस कर बड़ी अदा से अमरुद कैच कर रही थी | श्री जवाहर जी दोनों की हौसला आफजाई कर रहे थे |वाह क्या कैच है , जोर लगा के आकाश भैया ……… आगे बढ़ा तो देखा हवालदार सा तन्मय होकर गा रहे थे “पद्मावत में लिख्यो जायसी
सुन्नरि तेरा बखान ,सुनो सुनो हे सुनो सुन्नरी नैना मारे बान “| तभी ताई ने मुट्ठी में
इत्र मिला गुलाल निकल कर हुकुम सिंह पर फेका तो पूरा पंडाल गुलाब की खुसबू से महक उठा |” वाह ताई सबको गमका दिया ” | भांग का असर ताई पर भी था |
उन्होंने हुकुम सिंह का हाथ पकड़ कर ठुमका लगाया फिर अलापा ” बाँके सिपहिया से आँख लड़ी गुइया ,मैं बिचारी पलंग पे बैठी झाड़ू मारे
सैया “| कुछ आगे का सुन पाता कि मनोजवा मेरे कान में फुसफुसाया ” पंडित चू माई झाड़ू लेकर इस तरफ ही आ रही है | बस मित्रो मै जो नौ -दो- ग्यारह हुआ सो हुआ |
हा भागते भागते सुना दुलारी “कटि कंचन काट्यो अली का अर्थ पूछ रही है | जबाब में श्री आकाश जी ने कहा ” दुलारी तुम कहा बाजपेयी जी की पोस्टो के फेर में पड़ती हो ,ये पता नहीं क्या क्या लिखते रहते है | सोना यूं भी काफी महगा है | तुम इलाहाबादी अमरूद खाओ ,मैइनके के फायदे बताता हूँ| सुन कर भी नहीं समझ पाया |कहाँ  फागुन का श्रंगार रस कहाँ अमरुद ? भला फागुन किसी सुंदरी को अमरुद के गुण समझने भी देगा | पर मेरी नासमझी उसका करू भी तो क्या ?

[पंडित चाचू के बदले मनोजवा पंडित चू कहता है ]

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